Class Date: 05/20/09
Chapter:4
Page#: 76-94
Paragraph #:
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चोथा अधिकार: मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका निरुपण
मंगलाचरण: मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्र संसार दुःखके बीजभूत है
मिथ्यादर्शनका स्वरुप:
· दर्शनमोहके उदयसे अतत्वश्रद्धान
o तत्व: श्रद्धान करने योग्य अर्थका भाव
o अतत्व: तत्व नहीं, असत्य, मिथ्या
o श्रद्धान: 'एसा ही यह है' – एसा प्रतीतिभाव
o दर्शन – श्रद्धान, सामान्य अवलोकन; यहा दर्शन माने श्रद्धान, क्योंकि सामान्य अवलोकन संसार-मोक्षका कारण नहीं होता, श्रद्धान ही संसार-मोक्ष का कारण है
· मिथ्यारुप दर्शन, श्रद्धान
o जैसा वस्तुका स्वरुप नहीं है वैसा मानना, जैसा है वैसा नहीं मानना
शंका: केवलज्ञानके बिना सर्व पदार्थ यथार्थ भासित नहीं होते और यथार्थ भासित हुए बिना यथार्थ श्रद्धान नहीं होता, तो फ़िर मिथ्यादर्शनका त्याग कैसे बने?
समाधान:
· प्रयोजनभूतको यथार्थ जाने, माने – सम्यगद्रष्टि
· प्रयोजनभूतको अयथार्थ जाने, माने – मिथ्याद्रष्टि
· प्रयोजनभूत पदार्थोको यथार्थ-अयथार्थ जानना – ज्ञानावरणकर्म के निमित से
· प्रयोजनभूत पदार्थोको यथार्थ-अयथार्थ श्रद्धान – दर्शनमोहकर्म के निमित से
शंका: जैसा जाने वैसा श्रद्धान करे, इसलिय़े ज्ञानावरण ही के अनुसार श्रद्धान भासित होता है, यहा दर्शनमोहका विशेष निमित कैसे भासित होता है?
समाधान:
· सर्व संज्ञी पन्चेन्द्रियोको प्रयोजनभूत जीवादि तत्वोंका श्रद्धान करने योग्य ज्ञानावरण का क्षयोपशम है
· परंतु, द्रव्यलिंगी मूनि और ग्रेवेयकके देव को ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होने पर भी प्रयोजनभूत तत्वोका श्रद्धान नहीं होता
· और, तिरियंचादिक को ज्ञानावरण का क्षयोपशम थोडा होनेपरभी प्रयोजनभूत तत्वोका श्रद्धान नहीं होता
· दर्शनमोहके उदय से मिथ्यादर्शन होता है और अन्यथा श्रद्धान होता है
प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत पदार्थ:
शंका: प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत पदार्थ कोन है?
समाधान:
· जीवका प्रयोजन – सुख प्राप्ति, दुःखका अभाव
· सुख प्राप्ति – जीवदिकका सत्य श्रद्धान
· आपापरका ज्ञान अपनी सच्ची पहेचान कराता है; जीव-अजीवका ज्ञान होनेपर ही होता है
o परका उपचार करे या परमें ममकार करे तो दुःख दूर नहीं होता
· आस्रव
o दुःखका मूल कारण; कर्मबंधका कारण
o मिथ्यात्वादि भाव दुःखरुप है
o दुःख दूर करने के लिये आस्रवका स्वरुप जानना जरुरी है
· कर्मबंध:
o समस्त दुःखका कारण
o उसे जानकरही दुःख दूर करनेक उपाय कोई करे
· संवर:
o उसका स्वरुप न जाने तो आस्रव होता है
o वर्तमान और आगामी दुःख रहेता है
· निर्जरा:
o कर्मबंधका अभाव
o उसे न जाने तो उसकी प्रव्रतिमें उधमी नहीं हो; सर्वथा बंधही रहेता है; दुःखी होता है
· मोक्श:
o सर्वथा कर्मबंध का अभाव
o उसे नहीं पहेंचाने तो उसका उपाय नहीं हो और दुःखी रहेता है
· पुण्य-पाप:
o पुण्य-पाप का श्रद्धानभी प्रयोजनभूत है, क्योंकि सामान्य से विशेष बलवान है
· इन पदार्थो के श्रद्धान से सुख है और अश्रद्धान से दुःख है
· बाकी के सारे पदार्थ अप्रयोजनभूत है क्योंकि उनके श्रद्धान-अश्रद्धानसे सुख-दुःख नहीं है
शंका: जीव-अजीव में सभी पदार्थ आ गये, उनके सिवा अन्य पदार्थ कोन रहे जिन्हें अप्रयोजनभूत कहे?
समाधान:
· सब पदार्थ जीव-अजीव में गर्भित है
· पर जिनको विशेष जानने से स्वपरका श्रद्धान हो, रागादिक दूर करने का श्रद्धान हो, उनसे सुख उत्पन हो, और उनको न जानने से दुःख उत्पन हो – वह प्रयोजनभूत पदार्थ है
· बाकीके सभी पदार्थ अप्रयोजनभूत है
· प्रयोजनभूत जीवादिक पदार्थोका अयथार्थ श्रद्धान – मिथ्यादर्शन
मिथ्यादर्शनकी प्रव्रति:
जीव-अजीवतत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान
· अनादिकालसें जीव अनेक पर्यायें धारण करता है और उनमें अहंबुद्धि करता है
o पर्याय – एक स्वयं आत्मा + अनंत पुदगलपरमाणुमय शरीर
· बाह्य पदार्थोमें ममत्वबुद्धि करता है, और उनकी पर्यायकी अवस्थाको अपनी अवस्था मानता है
· जीव और शरीर के निमित-नैमितिक संबंधको एक मानकर:
o हाथसे स्पर्श कीया; जीभसे स्वाद लिया; एसा मानता है
· शरीरकी चेष्टा, शरीरकी अवस्थाको, जन्म-मरणको अपना जानता है
शंका: पर्यायमें अहंबुद्धि धारण करनेका कारण क्यां है?
समाधान:
· आत्माको अनादिसें इन्द्रियज्ञान है; स्वयं अमुर्तिक भासित नहीं होता और शरीर मुर्तिक भासित होता है
· मिथ्यादर्शन से जीव बह्यसामग्रीके संयोगको अपना मानता है;
o जैसे पुत्र, स्त्री, धन में ममकार करता है
o पुत्रादिकमें 'ये में ही हूं' एसा मानता है
आस्रवतत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान:
· मिथ्यात्व-कषायादिभावको अपना मानता है, कर्मोपाधिकसे हुए नहीं जानता
· दर्शन-ज्ञान उपयोग और आस्रवभावको एक मानता है क्योंकि इनका परिणाम एक ही कालमें होता है
· मिथ्यादर्शनके कारण भिन्नपनेका विचार नहीं होता
· मिथ्यात्व-कषायभाव: आकुलता सहित है, वर्तमान दुःखमय है, कर्मबंधके कारण है, आगामी कालमें दुःख उत्पन करेंगे
· दुःखी तो मिथ्यात्व-कषायभावसें होता है, पर औरोंको दुःख उत्पन करनेवाले मानता है
o दुःखी तो मिथ्याश्रद्धान से होता है, पर अपने श्रद्धान से विरुद्ध जो पदार्थ प्रवर्तता है उसे दुःखदायक मानता है
o दुःखी तो क्रोध / लोभ से होता है, पर 'जिसने क्रोध किया' / 'इष्ट वस्तुकी अप्राप्तिको' दुःखदायक मानता है
बंधतत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान:
· आस्रवभावो से कर्मोका बंध होता है
· उनके उदय पर
o ज्ञान-दर्शनकी हीनता, मिथ्यात्व-कषायरुप परिणाम होते है
o मुल कारण कर्म को नहीं पहिचानता क्योंकि कर्म शुक्ष्म है, दिखायी नहीं देते
o खुदको या दुसरो को कर्ता मानता है, अथवा भवितव्यताको मानता है
संवर संबंधी अयथार्थ श्रद्धान:
· संवर - आस्रवका अभाव
· आस्रवकी प्रव्रति अहितरुप भासित न हो, तो उसके अभावरुप संवर कोत हितरुप कैसे माने?
· अनादिसे जीव को आस्रवभाव ही हुआ है, संवर कभी नहीं हुआ, इसलिये संवर भासित नहीं होता
o संवर से सुख भासित नहीं होता, इसलिये आस्रवका संवर करता नहीं है
o अन्य पदार्थोको दुःखदायक मानकर उनका संयोग/वियोग चाहता है, पर वे अपने आधिन नहीं है व्रथा ही खेदखिन्न होता है
निर्जरातत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान
· निर्जरा - बंधका एकदेश अभाव
· बंधनरुप किये कर्मोंसे दुःख होना न जाने तो उनकी निर्जराके उपायको भला कैसे जाने?
· इन्द्रियों द्वारा सुक्ष्म कर्म का और वे दुःख देते है एसा ज्ञान नहीं होता
· इसलिये, अन्य पदार्थोंके अभाव का उपाय करता है, पर वे अपने आधिन नहीं है
· कदाचित कोई इष्ट संयोगादि कार्य बनता है, तो वह भी कर्म के अनुसार बनता है
मोक्षतत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान
· मोक्ष – सर्व कर्मबंध के अभाव का नाम मोक्ष है
· कर्मबंधको तथा बंधजनित दुःखको न जाने तो सर्वथा बंध के अभाव को कैसे भला जाने?
· जीव को कर्मोंका और उनकी शक्तिका ज्ञान नहीं है, इसलिये बाह्य पदार्थोंको दुःखका कारण जानकर उनका सदभाव/अभाव करनेका उपाय करता है
पुण्य-पाप संबंधी अयथार्थ श्रद्धान
· मिथ्यादर्शन से जीव पुण्य को भला और पाप को बुरा जानता है
· दोंनो आकुलता और कर्मबंध के कारण है इसलिये बुरे ही है
· शुभाशुभ भावसें पुण्य-पापका बंध होता है
मिथ्याज्ञान का स्वरुप
· मिथ्याज्ञान – प्रयोजनभूत जीवादि तत्वोंको अयथार्थ जानना
· मिथ्याज्ञान के तीन प्रकार:
o संशय – 'एसा है की एसा है' – परस्पर विरुद्धता सहित दोरुप ज्ञान
o विपर्यय – 'एसा ही है' – विरुद्धता सहित एकरुप ज्ञान
o अनघ्यवसाय – 'कुछ है' – एसा निर्धाररहित विचार
· अप्रयोजनभूत पदार्थ को यथार्थ/अयथार्थ जाननेको मिथ्या/सम्यक ज्ञान नहीं कहते
शंका: प्रत्यक्ष सच्चे-झुठे ज्ञानको सम्यक-मिथ्या कैसे न कहें?
समाधान:
· यहां संसार-मोक्षके कारणभूत सच-झूठ जाननेका निर्धार करना है। इसलिये, प्रयोजनभूत जीवादिक तत्वोंके जाननेकी अपेक्षा सम्यक-मिथ्याज्ञान है
· इसलिये, मिथ्यद्रष्टिके सर्व जाननेको मिथ्याज्ञान और सम्यकद्रष्टिके सर्व जाननेको सम्यकज्ञान कहा है
शंका: मिथ्याद्रष्टिको जीवादि तत्वो क अयथार्थ जानना है उसे मिथ्याज्ञान कहो, परंतु रस्सी सर्पादिकके यथार्थ जाननेको सम्यकज्ञान कहो?
समाधान:
· मिथ्याद्रष्टि कारणविपर्यय, स्वरुपविपर्यय, भेदाभेदविपर्यय सहित जानता है
· कारणविपर्यय: वस्तुस्वरुप के मूलकारण को नहीं पहिचानता
· स्वरुपविपर्यय: वस्तुस्वरुप को नहीं पहिचानता
· भेदाभेदविपर्यय: वस्तु की भिन्नता, अभिन्नता को नहीं पहिचानता
· मतवाला माता को पत्नी और पत्नी को माता जानता है, कभी वह माता को माता और पत्नी को पत्नी माने तो भी वह श्रद्धानपूर्वक न होने से अयथार्थ नाम पाता है
शंका: मिथ्याज्ञानका कारण कौन है?
समाधान: मिथ्याज्ञानका कारण मिथ्याभाव है
शंका: ज्ञानावरण को निमित क्यों नहीं कहा?
समाधान:
· ज्ञानावरण के उदय से अज्ञानभाव और ज्ञानावरण के क्षयोपशम से ज्ञानभाव होता है
· अगर इसीको मिथ्या/सम्यक ज्ञान कहे तो ये दोनो सम्यकद्रष्टि और मिथ्याद्रष्टि के होना चाहिए
· यह सिद्धांत से विरुद्ध है और इसलिए ज्ञानावरणका निमित नहीं बनता
शंका: रस्सी, सर्पादिक के अयथार्थ-यथार्थ ज्ञान का कारण कौन है? उसहीको जीवादि तत्वोंके अयथार्थ-यथार्थ ज्ञनका कारण कहो?
समाधान:
· जीवादितत्वोंको यथार्थ जाननेकी शक्ति होने, न होने में तो ज्ञानावरणका निमित है; परंतु सुख/दुःख के कारण्भुत पदार्थों के वेदनमें ज्ञानावरण निमित नहीं है
· उसी प्रकार जीवमें प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थोंको जानने की शक्ति है
· मिथ्यात्वके उदयमें अप्रयोजनभूतका वेदन करता है और प्रयोजनभूत को नहीं जानता
· इसलिये यहां प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थोंको जाननेमें ज्ञानावरण का निमित नहीं है; मिथ्यात्व का उदय-अनुदयही कारणभूत है
शंका: ज्ञान होनेपर श्रद्धान होता है, इसलिये पहले मिथ्याज्ञान कहो बादमें मिथ्यादर्शन कहो?
समाधान:
· सामान्यतया ज्ञान-श्रद्धान के निरुपणमें ज्ञान कारणभूत है, और श्रद्धान कार्यभूत है
· मिथ्या-सम्यक ज्ञान-श्रद्धान के निरुपणमें श्रद्धान कारणभूत है और ज्ञान कार्यभूत है
शंका: ज्ञान-श्रद्धान तो युगपत होते है, उनमें कारणकार्यपना कैसे कहते हो?
समाधान: जैसे दिपक हो तो प्रकाश हो, वैसे ज्ञान-श्रद्धान के कारण-कार्यपना है
शंका: मिथ्यादर्शनके संयोग से मिथ्याज्ञान होता है, तो एक मिथ्यादर्शनको संसारका कारण कहना था, मिथ्याज्ञानको अलग किसलिये कहा?
समाधान:
· सम्यकद्रष्टि और मिथ्याद्रष्टि के यथार्थ ज्ञान में कुछ अंतर नहीं है
· क्षयोपशमज्ञान अनेक ज्ञेय में लगता है, परंतु प्रयोजनभूत जीवादितत्वोंका यथार्थ निर्णय करने में नहीं लगता। यह मिथ्याज्ञान है
· जीवदितत्वोंका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता, यह मिथ्यादर्शन है
· एसे लक्षणभेदसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान भिन्न है
मिथ्याचारित्रका स्वरुप:
· मिथ्याचारित्र - चारित्रमोहके उदयसे कषायभाव
· अपने स्वभावरुप प्रव्रुति नहीं, परस्वभावरुप प्रव्रति
· स्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा
· मिथ्याचरित्रवाला पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना मानता है
· रागी-द्वेषी होकर पदार्थोंका सदभाव/अभाव चाहता है
· कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता नहीं है और जीव व्रथा ही कषायभाव सें आकुलित और दुःखी होता है
· अचारित्र – मिथ्याचारित्रमें स्वरुपाचरणका अभाव
· असंयम य अविरति – विरक्त्तता नहीं; पांच इन्द्रिय और मन के विषयोंमें तथा छकायकी हिंसा का त्यागरुप भाव नहीं
· अव्रत – हिंसा, अनरुत, अस्तेय, अब्रह्म, परिग्रह
· अव्रत का मूलकारण प्रमतयोग है
इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना:
· इष्ट – सुखदायक, उपकारी
· अनिष्ट – दुःखदायक, अनुपकारी
· पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट माननेपर कषायभाव होते है। यह मिथ्या है, क्योंकि कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं होता
· कोई पदार्थ सुखदायक/दुःखदायक उपकारी/अनुपकारी नहीं है
· जीव ही अपने परिणामोमें पदार्थो को सुखदायक/दुःखदायक उपकारी/अनुपकारी मानता है, क्योंकि एक ही पदार्थ किसी को इष्ट और किसी को अनिष्ट लगता है
· एकही जीव को एकही पदार्थ किसी कालमें इष्ट लगता है, किसी कालमें अनिष्ट लगता है
· शरीर इष्ट लगता है, परंतु रोगादि सहित अनिष्ट हो जाता है
· यदि पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना हो तो इष्ट पदार्थ सभी को इष्ट लगना चाहिए; परंतु एसा नहीं है। जीव कल्पना द्वारा पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना मानता है
· पुण्योदयमें पदार्थ सुखदायक-उपकारी लगता है, पापोदयमें वही पदार्थ दुःखदायक-अनुपकारी लगता है
· किसी को स्त्रीपुत्रादिक सुखदायक है, किसी को दुःखदायक है
· पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं होते, परंतु कर्मोदयके अनुसार प्रवर्तते है
शंका: बाह्य वस्तुओंका संयोग कर्मनिमित्तसे बनता है, तब कर्मों में तो राग-द्वेष करना?
समाधान:
· कर्म जड है, सुख-दुःख देने की इच्छा नहीं है
· वे स्वयमेव कर्मरुप परिणमित नहीं होते, जीवके भाव के निमित्तसे कर्मरुप होते है
· इसलिये कर्मसे भी राग-द्वेष करना मिथ्या है
· परपदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं है, परंतु परिणमन मिथ्या है, वही मिथ्याचारित्र है
राग-द्वेष विधान व विस्तार
· पर्यायमें अहंबुद्धि – अपने को और शरीर को एक मानना
· इष्ट/अनिष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्य पदार्थों में राग/द्वेष और उनके घातकोमें द्वेष/राग करना
· राग/द्वेष के परंपरा कारण पदार्थों मे राग/द्वेष करना
· जिनसे कोई मिलना नहीं है वैसे बाह्य पदार्थों मे राग-द्वेष करना
o गाय को उसका बच्चा इष्ट लगता है
o कुत्ते को बिल्ली से द्वेष होता है
शंका: अन्य पदार्थों में राग-द्वेष करनेका प्रयोजन जाना, परंतु प्रथम ही मूलभूत शरीर की अवस्था में तथा जो शरीर की अवस्था में कारण नहीं है उन पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट माननेक प्रयोजन क्या है?
समाधान: मूलभूत शरीरकी अवस्थामें बिना प्रयोजन राग-द्वेष करता है और उनहींके अर्थ अन्यसे राग-द्वेष करता है, इसलिये सर्व राग-द्वेष परिणति ही मिथ्याचारित्र है
शंका: शरीरकी अवस्था एवं बाह्य पदार्थोंमें इष्ट-अनिष्ट माननेका प्रयोजन नहीं है और माने बिना रहा नहीं जाता, सो कारण क्या है?
समाधान:
· चारित्रमोहके उदयसे राग-द्वेषभाव होते है
· राग-द्वेष पदार्थके निमित्त से होते है
· पदार्थ और राग-द्वेषके निमित्त-नैमितिक संबंध है
· रागादि का अंतरंग कारण 'मोहका उदय' (बलवान कारण)
· रागादि का बाह्य कारण 'पदार्थ' (कमजोर कारण)
· मुनिको मंद मोहसे बाह्य पदार्थोका निमित्त होने परभी राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते
· पापी जीवोके तीव्रमोहसे बह्य पदार्थो का निमित्त न होते परभी संकल्प ही से राग-द्वेष करते है
· मोहके उदय से रागादिक होते है
· जिस बह्य पदार्थ से राग-द्वेष होता है, उसमें बिना प्रयोजन अथवा प्रयोजनसहित इष्टबुद्धि/अनिष्टबुद्धि होती है
· इसलिये मोहके उदयसे पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट माने बिना रहा नहीं जाता
मोहकी महिमा
· मिथ्यादर्शनादिकभाव अनादि से है
· पर्याय अनुसार मोह के उदयरुप परिणमन होता है
· मनुष्यभव में
o सत्यविचार होने के कारण मिलनेपर
o श्रीगुरु के उपदेशका निमित्त होनेपर
o स्वयंको भी प्रत्यक्ष भासित होने परभी जीव अन्यथा ही मानता है
o मरणसे शरीर और आत्मा भिन्न होनेपर भी पूर्वभवके संबंध प्रगट करते देखे जाते है
o अपने सगे विपरीत होते है, फ़िरभी उनमें यह जीव ममत्व करके अनेक प्रकार के पाप उत्पन करता है
o कार्य होनेपर खुद को कर्ता मानता है, नहीं तो अकर्ता मानता है
o मरण निशचित होनेपरभी कहता है की – यश या पुत्र रहेंगे तो में जीवित रहुंगा
o परलोक होनेका निशचय होनेपर भी इस लोक की सामग्री में आसक्त्त रहेता है
o हिंसादि कार्यो द्वारा स्वयं दुःखी, लोकमें निंध, परलोकमें बुरा होता है – एसा जानते हुएभी एसे प्रवर्तता है
इस प्रकार जीव अनादिसे मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररुप परिणमित होकर अनेक प्रकार के कर्मो का बंध करता है, और यही भाव दुःखो के बीज है। मिथ्यादर्शनादिक विभावका अभाव ही कार्यकारी है।