Thursday, May 21, 2009

चोथा अधिकार: मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका निरुपण

Class Date: 05/20/09

Chapter:4

Page#: 76-94

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चोथा अधिकार: मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका निरुपण

मंगलाचरण: मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्र संसार दुःखके बीजभूत है

मिथ्यादर्शनका स्वरुप:

· दर्शनमोहके उदयसे अतत्वश्रद्धान

o तत्व: श्रद्धान करने योग्य अर्थका भाव

o अतत्व: तत्व नहीं, असत्य, मिथ्या

o श्रद्धान: 'एसा ही यह है' – एसा प्रतीतिभाव

o दर्शन – श्रद्धान, सामान्य अवलोकन; यहा दर्शन माने श्रद्धान, क्योंकि सामान्य अवलोकन संसार-मोक्षका कारण नहीं होता, श्रद्धान ही संसार-मोक्ष का कारण है

· मिथ्यारुप दर्शन, श्रद्धान

o जैसा वस्तुका स्वरुप नहीं है वैसा मानना, जैसा है वैसा नहीं मानना

शंका: केवलज्ञानके बिना सर्व पदार्थ यथार्थ भासित नहीं होते और यथार्थ भासित हुए बिना यथार्थ श्रद्धान नहीं होता, तो फ़िर मिथ्यादर्शनका त्याग कैसे बने?

समाधान:

· प्रयोजनभूतको यथार्थ जाने, माने – सम्यगद्रष्टि

· प्रयोजनभूतको अयथार्थ जाने, माने – मिथ्याद्रष्टि

· प्रयोजनभूत पदार्थोको यथार्थ-अयथार्थ जानना – ज्ञानावरणकर्म के निमित से

· प्रयोजनभूत पदार्थोको यथार्थ-अयथार्थ श्रद्धान – दर्शनमोहकर्म के निमित से

शंका: जैसा जाने वैसा श्रद्धान करे, इसलिय़े ज्ञानावरण ही के अनुसार श्रद्धान भासित होता है, यहा दर्शनमोहका विशेष निमित कैसे भासित होता है?

समाधान:

· सर्व संज्ञी पन्चेन्द्रियोको प्रयोजनभूत जीवादि तत्वोंका श्रद्धान करने योग्य ज्ञानावरण का क्षयोपशम है

· परंतु, द्रव्यलिंगी मूनि और ग्रेवेयकके देव को ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होने पर भी प्रयोजनभूत तत्वोका श्रद्धान नहीं होता

· और, तिरियंचादिक को ज्ञानावरण का क्षयोपशम थोडा होनेपरभी प्रयोजनभूत तत्वोका श्रद्धान नहीं होता

· दर्शनमोहके उदय से मिथ्यादर्शन होता है और अन्यथा श्रद्धान होता है

प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत पदार्थ:

शंका: प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत पदार्थ कोन है?

समाधान:

· जीवका प्रयोजन – सुख प्राप्ति, दुःखका अभाव

· सुख प्राप्ति – जीवदिकका सत्य श्रद्धान

· आपापरका ज्ञान अपनी सच्ची पहेचान कराता है; जीव-अजीवका ज्ञान होनेपर ही होता है

o परका उपचार करे या परमें ममकार करे तो दुःख दूर नहीं होता

· आस्रव

o दुःखका मूल कारण; कर्मबंधका कारण

o मिथ्यात्वादि भाव दुःखरुप है

o दुःख दूर करने के लिये आस्रवका स्वरुप जानना जरुरी है

· कर्मबंध:

o समस्त दुःखका कारण

o उसे जानकरही दुःख दूर करनेक उपाय कोई करे

· संवर:

o उसका स्वरुप न जाने तो आस्रव होता है

o वर्तमान और आगामी दुःख रहेता है

· निर्जरा:

o कर्मबंधका अभाव

o उसे न जाने तो उसकी प्रव्रतिमें उधमी नहीं हो; सर्वथा बंधही रहेता है; दुःखी होता है

· मोक्श:

o सर्वथा कर्मबंध का अभाव

o उसे नहीं पहेंचाने तो उसका उपाय नहीं हो और दुःखी रहेता है

· पुण्य-पाप:

o पुण्य-पाप का श्रद्धानभी प्रयोजनभूत है, क्योंकि सामान्य से विशेष बलवान है

· इन पदार्थो के श्रद्धान से सुख है और अश्रद्धान से दुःख है

· बाकी के सारे पदार्थ अप्रयोजनभूत है क्योंकि उनके श्रद्धान-अश्रद्धानसे सुख-दुःख नहीं है

शंका: जीव-अजीव में सभी पदार्थ आ गये, उनके सिवा अन्य पदार्थ कोन रहे जिन्हें अप्रयोजनभूत कहे?

समाधान:

· सब पदार्थ जीव-अजीव में गर्भित है

· पर जिनको विशेष जानने से स्वपरका श्रद्धान हो, रागादिक दूर करने का श्रद्धान हो, उनसे सुख उत्पन हो, और उनको न जानने से दुःख उत्पन हो – वह प्रयोजनभूत पदार्थ है

· बाकीके सभी पदार्थ अप्रयोजनभूत है

· प्रयोजनभूत जीवादिक पदार्थोका अयथार्थ श्रद्धान – मिथ्यादर्शन

मिथ्यादर्शनकी प्रव्रति:

जीव-अजीवतत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान

· अनादिकालसें जीव अनेक पर्यायें धारण करता है और उनमें अहंबुद्धि करता है

o पर्याय – एक स्वयं आत्मा + अनंत पुदगलपरमाणुमय शरीर

· बाह्य पदार्थोमें ममत्वबुद्धि करता है, और उनकी पर्यायकी अवस्थाको अपनी अवस्था मानता है

· जीव और शरीर के निमित-नैमितिक संबंधको एक मानकर:

o हाथसे स्पर्श कीया; जीभसे स्वाद लिया; एसा मानता है

· शरीरकी चेष्टा, शरीरकी अवस्थाको, जन्म-मरणको अपना जानता है

शंका: पर्यायमें अहंबुद्धि धारण करनेका कारण क्यां है?

समाधान:

· आत्माको अनादिसें इन्द्रियज्ञान है; स्वयं अमुर्तिक भासित नहीं होता और शरीर मुर्तिक भासित होता है

· मिथ्यादर्शन से जीव बह्यसामग्रीके संयोगको अपना मानता है;

o जैसे पुत्र, स्त्री, धन में ममकार करता है

o पुत्रादिकमें 'ये में ही हूं' एसा मानता है

आस्रवतत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान:

· मिथ्यात्व-कषायादिभावको अपना मानता है, कर्मोपाधिकसे हुए नहीं जानता

· दर्शन-ज्ञान उपयोग और आस्रवभावको एक मानता है क्योंकि इनका परिणाम एक ही कालमें होता है

· मिथ्यादर्शनके कारण भिन्नपनेका विचार नहीं होता

· मिथ्यात्व-कषायभाव: आकुलता सहित है, वर्तमान दुःखमय है, कर्मबंधके कारण है, आगामी कालमें दुःख उत्पन करेंगे

· दुःखी तो मिथ्यात्व-कषायभावसें होता है, पर औरोंको दुःख उत्पन करनेवाले मानता है

o दुःखी तो मिथ्याश्रद्धान से होता है, पर अपने श्रद्धान से विरुद्ध जो पदार्थ प्रवर्तता है उसे दुःखदायक मानता है

o दुःखी तो क्रोध / लोभ से होता है, पर 'जिसने क्रोध किया' / 'इष्ट वस्तुकी अप्राप्तिको' दुःखदायक मानता है

बंधतत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान:

· आस्रवभावो से कर्मोका बंध होता है

· उनके उदय पर

o ज्ञान-दर्शनकी हीनता, मिथ्यात्व-कषायरुप परिणाम होते है

o मुल कारण कर्म को नहीं पहिचानता क्योंकि कर्म शुक्ष्म है, दिखायी नहीं देते

o खुदको या दुसरो को कर्ता मानता है, अथवा भवितव्यताको मानता है

संवर संबंधी अयथार्थ श्रद्धान:

· संवर - आस्रवका अभाव

· आस्रवकी प्रव्रति अहितरुप भासित न हो, तो उसके अभावरुप संवर कोत हितरुप कैसे माने?

· अनादिसे जीव को आस्रवभाव ही हुआ है, संवर कभी नहीं हुआ, इसलिये संवर भासित नहीं होता

o संवर से सुख भासित नहीं होता, इसलिये आस्रवका संवर करता नहीं है

o अन्य पदार्थोको दुःखदायक मानकर उनका संयोग/वियोग चाहता है, पर वे अपने आधिन नहीं है व्रथा ही खेदखिन्न होता है

निर्जरातत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान

· निर्जरा - बंधका एकदेश अभाव

· बंधनरुप किये कर्मोंसे दुःख होना न जाने तो उनकी निर्जराके उपायको भला कैसे जाने?

· इन्द्रियों द्वारा सुक्ष्म कर्म का और वे दुःख देते है एसा ज्ञान नहीं होता

· इसलिये, अन्य पदार्थोंके अभाव का उपाय करता है, पर वे अपने आधिन नहीं है

· कदाचित कोई इष्ट संयोगादि कार्य बनता है, तो वह भी कर्म के अनुसार बनता है

मोक्षतत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान

· मोक्ष – सर्व कर्मबंध के अभाव का नाम मोक्ष है

· कर्मबंधको तथा बंधजनित दुःखको न जाने तो सर्वथा बंध के अभाव को कैसे भला जाने?

· जीव को कर्मोंका और उनकी शक्तिका ज्ञान नहीं है, इसलिये बाह्य पदार्थोंको दुःखका कारण जानकर उनका सदभाव/अभाव करनेका उपाय करता है

पुण्य-पाप संबंधी अयथार्थ श्रद्धान

· मिथ्यादर्शन से जीव पुण्य को भला और पाप को बुरा जानता है

· दोंनो आकुलता और कर्मबंध के कारण है इसलिये बुरे ही है

· शुभाशुभ भावसें पुण्य-पापका बंध होता है

मिथ्याज्ञान का स्वरुप

· मिथ्याज्ञान – प्रयोजनभूत जीवादि तत्वोंको अयथार्थ जानना

· मिथ्याज्ञान के तीन प्रकार:

o संशय – 'एसा है की एसा है' – परस्पर विरुद्धता सहित दोरुप ज्ञान

o विपर्यय – 'एसा ही है' – विरुद्धता सहित एकरुप ज्ञान

o अनघ्यवसाय – 'कुछ है' – एसा निर्धाररहित विचार

· अप्रयोजनभूत पदार्थ को यथार्थ/अयथार्थ जाननेको मिथ्या/सम्यक ज्ञान नहीं कहते

शंका: प्रत्यक्ष सच्चे-झुठे ज्ञानको सम्यक-मिथ्या कैसे न कहें?

समाधान:

· यहां संसार-मोक्षके कारणभूत सच-झूठ जाननेका निर्धार करना है। इसलिये, प्रयोजनभूत जीवादिक तत्वोंके जाननेकी अपेक्षा सम्यक-मिथ्याज्ञान है

· इसलिये, मिथ्यद्रष्टिके सर्व जाननेको मिथ्याज्ञान और सम्यकद्रष्टिके सर्व जाननेको सम्यकज्ञान कहा है

शंका: मिथ्याद्रष्टिको जीवादि तत्वो क अयथार्थ जानना है उसे मिथ्याज्ञान कहो, परंतु रस्सी सर्पादिकके यथार्थ जाननेको सम्यकज्ञान कहो?

समाधान:

· मिथ्याद्रष्टि कारणविपर्यय, स्वरुपविपर्यय, भेदाभेदविपर्यय सहित जानता है

· कारणविपर्यय: वस्तुस्वरुप के मूलकारण को नहीं पहिचानता

· स्वरुपविपर्यय: वस्तुस्वरुप को नहीं पहिचानता

· भेदाभेदविपर्यय: वस्तु की भिन्नता, अभिन्नता को नहीं पहिचानता

· मतवाला माता को पत्नी और पत्नी को माता जानता है, कभी वह माता को माता और पत्नी को पत्नी माने तो भी वह श्रद्धानपूर्वक न होने से अयथार्थ नाम पाता है

शंका: मिथ्याज्ञानका कारण कौन है?

समाधान: मिथ्याज्ञानका कारण मिथ्याभाव है

शंका: ज्ञानावरण को निमित क्यों नहीं कहा?

समाधान:

· ज्ञानावरण के उदय से अज्ञानभाव और ज्ञानावरण के क्षयोपशम से ज्ञानभाव होता है

· अगर इसीको मिथ्या/सम्यक ज्ञान कहे तो ये दोनो सम्यकद्रष्टि और मिथ्याद्रष्टि के होना चाहिए

· यह सिद्धांत से विरुद्ध है और इसलिए ज्ञानावरणका निमित नहीं बनता

शंका: रस्सी, सर्पादिक के अयथार्थ-यथार्थ ज्ञान का कारण कौन है? उसहीको जीवादि तत्वोंके अयथार्थ-यथार्थ ज्ञनका कारण कहो?

समाधान:

· जीवादितत्वोंको यथार्थ जाननेकी शक्ति होने, न होने में तो ज्ञानावरणका निमित है; परंतु सुख/दुःख के कारण्भुत पदार्थों के वेदनमें ज्ञानावरण निमित नहीं है

· उसी प्रकार जीवमें प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थोंको जानने की शक्ति है

· मिथ्यात्वके उदयमें अप्रयोजनभूतका वेदन करता है और प्रयोजनभूत को नहीं जानता

· इसलिये यहां प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थोंको जाननेमें ज्ञानावरण का निमित नहीं है; मिथ्यात्व का उदय-अनुदयही कारणभूत है

शंका: ज्ञान होनेपर श्रद्धान होता है, इसलिये पहले मिथ्याज्ञान कहो बादमें मिथ्यादर्शन कहो?

समाधान:

· सामान्यतया ज्ञान-श्रद्धान के निरुपणमें ज्ञान कारणभूत है, और श्रद्धान कार्यभूत है

· मिथ्या-सम्यक ज्ञान-श्रद्धान के निरुपणमें श्रद्धान कारणभूत है और ज्ञान कार्यभूत है

शंका: ज्ञान-श्रद्धान तो युगपत होते है, उनमें कारणकार्यपना कैसे कहते हो?

समाधान: जैसे दिपक हो तो प्रकाश हो, वैसे ज्ञान-श्रद्धान के कारण-कार्यपना है

शंका: मिथ्यादर्शनके संयोग से मिथ्याज्ञान होता है, तो एक मिथ्यादर्शनको संसारका कारण कहना था, मिथ्याज्ञानको अलग किसलिये कहा?

समाधान:

· सम्यकद्रष्टि और मिथ्याद्रष्टि के यथार्थ ज्ञान में कुछ अंतर नहीं है

· क्षयोपशमज्ञान अनेक ज्ञेय में लगता है, परंतु प्रयोजनभूत जीवादितत्वोंका यथार्थ निर्णय करने में नहीं लगता। यह मिथ्याज्ञान है

· जीवदितत्वोंका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता, यह मिथ्यादर्शन है

· एसे लक्षणभेदसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान भिन्न है

मिथ्याचारित्रका स्वरुप:

· मिथ्याचारित्र - चारित्रमोहके उदयसे कषायभाव

· अपने स्वभावरुप प्रव्रुति नहीं, परस्वभावरुप प्रव्रति

· स्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा

· मिथ्याचरित्रवाला पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना मानता है

· रागी-द्वेषी होकर पदार्थोंका सदभाव/अभाव चाहता है

· कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता नहीं है और जीव व्रथा ही कषायभाव सें आकुलित और दुःखी होता है

· अचारित्र – मिथ्याचारित्रमें स्वरुपाचरणका अभाव

· असंयम य अविरति – विरक्त्तता नहीं; पांच इन्द्रिय और मन के विषयोंमें तथा छकायकी हिंसा का त्यागरुप भाव नहीं

· अव्रत – हिंसा, अनरुत, अस्तेय, अब्रह्म, परिग्रह

· अव्रत का मूलकारण प्रमतयोग है

इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना:

· इष्ट – सुखदायक, उपकारी

· अनिष्ट – दुःखदायक, अनुपकारी

· पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट माननेपर कषायभाव होते है। यह मिथ्या है, क्योंकि कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं होता

· कोई पदार्थ सुखदायक/दुःखदायक उपकारी/अनुपकारी नहीं है

· जीव ही अपने परिणामोमें पदार्थो को सुखदायक/दुःखदायक उपकारी/अनुपकारी मानता है, क्योंकि एक ही पदार्थ किसी को इष्ट और किसी को अनिष्ट लगता है

· एकही जीव को एकही पदार्थ किसी कालमें इष्ट लगता है, किसी कालमें अनिष्ट लगता है

· शरीर इष्ट लगता है, परंतु रोगादि सहित अनिष्ट हो जाता है

· यदि पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना हो तो इष्ट पदार्थ सभी को इष्ट लगना चाहिए; परंतु एसा नहीं है। जीव कल्पना द्वारा पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना मानता है

· पुण्योदयमें पदार्थ सुखदायक-उपकारी लगता है, पापोदयमें वही पदार्थ दुःखदायक-अनुपकारी लगता है

· किसी को स्त्रीपुत्रादिक सुखदायक है, किसी को दुःखदायक है

· पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं होते, परंतु कर्मोदयके अनुसार प्रवर्तते है

शंका: बाह्य वस्तुओंका संयोग कर्मनिमित्तसे बनता है, तब कर्मों में तो राग-द्वेष करना?

समाधान:

· कर्म जड है, सुख-दुःख देने की इच्छा नहीं है

· वे स्वयमेव कर्मरुप परिणमित नहीं होते, जीवके भाव के निमित्तसे कर्मरुप होते है

· इसलिये कर्मसे भी राग-द्वेष करना मिथ्या है

· परपदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं है, परंतु परिणमन मिथ्या है, वही मिथ्याचारित्र है

राग-द्वेष विधान व विस्तार

· पर्यायमें अहंबुद्धि – अपने को और शरीर को एक मानना

· इष्ट/अनिष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्य पदार्थों में राग/द्वेष और उनके घातकोमें द्वेष/राग करना

· राग/द्वेष के परंपरा कारण पदार्थों मे राग/द्वेष करना

· जिनसे कोई मिलना नहीं है वैसे बाह्य पदार्थों मे राग-द्वेष करना

o गाय को उसका बच्चा इष्ट लगता है

o कुत्ते को बिल्ली से द्वेष होता है

शंका: अन्य पदार्थों में राग-द्वेष करनेका प्रयोजन जाना, परंतु प्रथम ही मूलभूत शरीर की अवस्था में तथा जो शरीर की अवस्था में कारण नहीं है उन पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट माननेक प्रयोजन क्या है?

समाधान: मूलभूत शरीरकी अवस्थामें बिना प्रयोजन राग-द्वेष करता है और उनहींके अर्थ अन्यसे राग-द्वेष करता है, इसलिये सर्व राग-द्वेष परिणति ही मिथ्याचारित्र है

शंका: शरीरकी अवस्था एवं बाह्य पदार्थोंमें इष्ट-अनिष्ट माननेका प्रयोजन नहीं है और माने बिना रहा नहीं जाता, सो कारण क्या है?

समाधान:

· चारित्रमोहके उदयसे राग-द्वेषभाव होते है

· राग-द्वेष पदार्थके निमित्त से होते है

· पदार्थ और राग-द्वेषके निमित्त-नैमितिक संबंध है

· रागादि का अंतरंग कारण 'मोहका उदय' (बलवान कारण)

· रागादि का बाह्य कारण 'पदार्थ' (कमजोर कारण)

· मुनिको मंद मोहसे बाह्य पदार्थोका निमित्त होने परभी राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते

· पापी जीवोके तीव्रमोहसे बह्य पदार्थो का निमित्त न होते परभी संकल्प ही से राग-द्वेष करते है

· मोहके उदय से रागादिक होते है

· जिस बह्य पदार्थ से राग-द्वेष होता है, उसमें बिना प्रयोजन अथवा प्रयोजनसहित इष्टबुद्धि/अनिष्टबुद्धि होती है

· इसलिये मोहके उदयसे पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट माने बिना रहा नहीं जाता

मोहकी महिमा

· मिथ्यादर्शनादिकभाव अनादि से है

· पर्याय अनुसार मोह के उदयरुप परिणमन होता है

· मनुष्यभव में

o सत्यविचार होने के कारण मिलनेपर

o श्रीगुरु के उपदेशका निमित्त होनेपर

o स्वयंको भी प्रत्यक्ष भासित होने परभी जीव अन्यथा ही मानता है

o मरणसे शरीर और आत्मा भिन्न होनेपर भी पूर्वभवके संबंध प्रगट करते देखे जाते है

o अपने सगे विपरीत होते है, फ़िरभी उनमें यह जीव ममत्व करके अनेक प्रकार के पाप उत्पन करता है

o कार्य होनेपर खुद को कर्ता मानता है, नहीं तो अकर्ता मानता है

o मरण निशचित होनेपरभी कहता है की – यश या पुत्र रहेंगे तो में जीवित रहुंगा

o परलोक होनेका निशचय होनेपर भी इस लोक की सामग्री में आसक्त्त रहेता है

o हिंसादि कार्यो द्वारा स्वयं दुःखी, लोकमें निंध, परलोकमें बुरा होता है – एसा जानते हुएभी एसे प्रवर्तता है

इस प्रकार जीव अनादिसे मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररुप परिणमित होकर अनेक प्रकार के कर्मो का बंध करता है, और यही भाव दुःखो के बीज है। मिथ्यादर्शनादिक विभावका अभाव ही कार्यकारी है।