Monday, July 28, 2008

Class Notes - July 28th, 2008 - करणानुयोग का प्रयोजन

Class Notes - July 28th, 2008 - करणानुयोग का प्रयोजन

* धर्म मे लगाना - इस का क्या मतलब?
-> करणानुयोग और अन्य अनुयोग पढ़ने के पीछे ख्याति, आजीविका, ज्ञान क मान, अन्य जीवो को पढ़ा के उनका उद्धार करना आदि प्रयोजन ग़लत हे। इन अनुयोगों की पढाई का एक मात्र उदेश्श धर्म मे उपयोग स्थिर करना हे।

* करणानुयोग का विषय क्या हे?
-> १ : गुणस्थानक / मार्गणा , २ : त्रिलोक की रचना, नरक-स्वर्ग आदि के ठिकाने , ३ : कर्मो के कारण, अवस्था, फल किस किस के, केसे केसे

* मार्गणा किसे कहते हे?
-> जीवो के गति, इन्द्रिय, जाती आदि से खोजने का तरीका, जीवो का classification करना।

* लाभ १ : पाप से विमुखता
* लाभ २ : अगर उपयोग एकार्ग हो जाये तो तत्काल ही सुभ उपयोग रूप धर्म उत्पन्न होता हे। करणानुयोग को गहराई से विचार ने के लिए उपयोग की स्थिरता चाहिए जो की पाप प्रवृति के होने पर, कषाय के होने पर नही होगी और तब सिर्फ़ ऊपर ऊपर से वांचन होगा।
* लाभ ३ : भेद विज्ञान रूप तत्त्व ज्ञान की शीघ्र ही प्राप्ति होती हे ।
* लाभ ४ : जिन मत की सूक्ष्मता और यथार्थता जानकर उसके प्रति आदर, कृतज्ञता, बहुमान का भाव और दृढ श्रध्धान होता हे ।
* लाभ ५ : केवल ज्ञान से जो प्रत्यक्ष दिखाई देता हे वो ही इस श्रुत ज्ञान के द्वारा अप्रत्यक्ष भासित होता हे।

*तत्वज्ञानी के लाभ १ : जेसे प्रथमानुयोग तत्वज्ञानी को द्रष्टान्त रूप लगता हे वेसे करणानुयोग विशेषण रूप लगेगा।
* तत्वज्ञानी के लाभ २: तत्वज्ञान निर्मल होता हे। निर्मलता से वोह सहज ही विशेष धर्मात्मा बनेगा ।

* करण + अनुयोग = गणित कार्य के कारण रूप सूत्र का अधिकार।



Please look at the comments for other "labh" that we discussed in the class.

1 comment:

Anonymous said...

Here are some other labh we discussed in the class related to tin lok:

-> जीव तीनो लोक मे भ्रमण कर रहा हे वोह प्रतीत होत हे.
-> नरक और स्वर्ग से पाप पुन्य का विवेक जगता हे.
-> सान्सारीक दुखो कि लघुता समज मे आती हे.
-> मनुश्य भव कि दुर्लभता
-> जैन धर्म के प्रती महीमा होगी जब इत्नी सुक्श्म्ता से १४ राज्लोक का वर्णन मिलेगा.
-> विश्व का सच्चा स्वरूप समज मे आता हे, जेसे कोइ विश्व बनाता नही हे आदि..
-> मान और अन्य कषाय कम होगी.
-> जैन ध्र्म अन्य द्वीप और क्शेत्र मे हे, अरिहन्त सद रहेन्गे, येह जान हमारा धर्म पुरुशार्थ रुकेगा नही.
-> ग्यान सच्ची दीशा मे लगेगा, व्यर्थ सान्सारिक वस्तुओ मे नही जायेगा.
-> मुझे तिन लोक क ग्यान प्रगट नही हे, आगम से समज रहा हु, लेकीन केवल्ग्यान से तो येह प्रत्यक्श दिख्ता हे. ईस भाव से केवल्ग्यान की चाह बठेगी.
-> सान्सारिक सुख मिथ्या लगेगा, घुम्ने-फ़ीर्ने कि इच्छा कम होगी, सान्सारिक आकुल्ता मे उत््साह कम होगा और अभीलाशा का अन्त होगा.

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