Wednesday, January 27, 2010

Class notes from 1/25/10

Class Date: 1/25/10
Chapter: 7
Page#: 226
Paragraph #: 6
Recorded version:
Summary:
1/25/10

Chapter 7 pg 226
Para 6

Asrav tatva sambandhi bhul

Yadi punya upadey hai aisa mane to ashubh hi hota hai, parantu yadi punya ko hey mane aur shubh pravarti mein ho (4th to 6th gunsthanak) to zyada punya hota hai. Punya aur paap, karm ki apeksha ek hai kyonki dono se sada kaal bandh hi hota hai aisa manna chahiye. Yadi aisa manna ho to lakshya ki prapti ho. Jaha purna rup se, vitrag hokar, gyata drashta ho sirf vo upadey dasha hai aur nirbandh dasha hai.

Samanya jeev (jo abhi utkrusht/samyaktvi nahi hai) unke liye bhi manyata to yehi honi chahiye ki punya bhi karne layak nahi, usme bhi bandh hi hai. Maanna aisa hai aur karya bhi shudhoupyog ke lakshya ko dhyan mein rakhkar hi karna hai. Aisa karne se shubh mein pravarti aap hi ho jaati hai, sahaj rup se- shubh upyog ka lakshya nahi rakhna. Jab tak aisi avastha na ho, prashast raag rup pravartan karna chahiye, parantu shraddhan mein ise moksh marg na samjhe. Shubh mein pravarte tab bhi sadhan sadhya bhaav yaad kare.

Aisa samajhkar fir iska bhaav bhasan karna hai—raag aur vitragta mein antar samjhna hai. Mand kashay rup parinam, so ye bhi raag rup hai, vitraag nahi hai aisa samjhna chahiye- yeh vitragta se bhinn kaise hai, yeh is ke madhyam se bhasit karna hai. Punya aur paap parinam dono hi santapt parinati hai, kya hamein aisa lagta hai? Kya puja karte hai usme bhi taap lagta hai? Shayad nahi, parantu vo bhi taap rup hai aisa dhyan mein rakhna hai, kyonki punya ke samay jo raag rup parinati chalti hai, vo bhi aakulta rup hi hai- isse dur hokar, vitragta samajhni hai. Punya paap rup parinam jo hai vo vikari hai, aur yeh asrav ka karan hai.

Shubh se shuddhatma pragat nahi hota, parantu shubh ke bina bhi shuddh nahi hota. Shubh shuddh ke liye sadhan hai, upadey nahi, lakshya nahi.

Mithyatva, avirati, kashay, yog yeh asrav ke bhed hai. Vo kaise:
Grahit mithyatva (ku guru, ku dev, ku shastra ka sevan) ko to sab jaini mithyatva maante hai, jaante hai; parantu agrahit mithyatva jo hamare anadi se paya jaata hai (jeev aur sharir ko ek maanna) iski aur vichar hi nahi jata. Mithyatva ka bahirang swarup to hum maan lete hai, parantu antarang swarup nahi samajhte. Sharir aur aatma ke bhed vigyan ko pragat karna hai.

Avirati- 5 indriyo aur man ke vishayo mein pravarti karna aur shat kaay jeev ki hinsa karna- yeh avirati hai aisa manta hai; parantu Hinsa mein pramad (aalas, asavdhani) parinati mul hai aur Vishay mein abhilasha mul hai- to bahirang pravarti pe dhyan hai lekin antarang parinati pe dhyan nahi- isse fir virati nahi hoti, avirati hi bani rehti hai. Jaise antarang parinam honge, vaisi bahya kriya hoti hi hai, isliye antarang parinam theek karne chahiye. Pramad se prano ka ghat, yeh hinsa hai. Aur fir, anya ka ghat ho ya na ho, pramad hai to swa ka ghaat to hota hi hai.

Wednesday, January 20, 2010

MMP Class Notes - January 19th, 2010

Class Date:01/19/10
Chapter:7
Page#:226
Paragraph #:3rd
Recorded version:
Summary:

दुसरे जिव को बचाने का भाव, यहा में दुसरे जिव को बचा शकता हु, यह कर्ता बुद्धि तो मिथ्या द्रष्टि हे और जिव-अजिव तत्व संबंधी भुल हे. जब कि इस दुसरे जिव को बचाने का जो भाव हे उस भाव को सर्वथा उपादेय मानना वोह आश्रव तत्व संबंधी भुल हे. ज्यादातर लोग एसा मानते हे कि पाप कम करने से और पुण्य करते रहने से काम हो जायेगा. यहा शुभ भाव को उपादेय मानकर उसमें धर्म मान लेना और वहा ही संतुष्ट हो जाना वोह मुख्य समस्या हे. ये तो साधन मात्र हे, साध्य नही हे. यह पुण्य मे उपादेय बुद्धि संवर या निर्जरा रुप नही हे.

शुभ का राग इतना हे कि मेरा शुध्धोपयोग हुआ ही नही उस तरफ़ हमारी नजर जाती ही नही. निकले तो थे शुद्ध को पाने के लिये लेकिन अभी तक जो परिश्रम किया वो सफ़ल नहि हुआ वोह एक बार एह्सास मे आना जरुरी हे और सच्ची द्रष्टी के साथ उत्साह से आगे बढना हे.

यहा आगे कहते हे कि पाप को बुरा और पुण्य को भला जानते हे वहा भी पाप को जो बुरा माना हे वोह संयोग अपेक्षा से माना हे और सिर्फ़ प्रतिकुलता से बचने के लिये पाप को बुरा जानना वोह सच्ची द्रष्टी नही हे. पाप तो कर्म बंध का कारण हे और पाप करते समय जो आत्मा में संक्लेश परिणाम होते हे वोह आत्मा के लिये बुरे हे उस तरफ़ द्रष्टी ले जानी हे. संक्लेश परिणाम से जो प्रतिकुलता मिलति हे उस पर नजर जाती हे लेकिन उन परीणाम पर नजर जाती नही हे.

हिंसा और अहिंसा के परिणाम जो आत्मा मे होते हे उनको समान जानना एसी बात अन्य कहां कही जाती हे. यहा मान्यता कि बात हे, करना क्या हे वोह उसके बाद कि बात हे. हिंसा भी क्यो त्याज्य हे? इस लिये कि पर को दु:ख नहि देना चाहिये कि उस समय हमारी खुद की आत्मा संक्लेश रुप होकर दु:खीरुप होती हे. एसा भी नही सोचना हे कि यह तो उपर के गुणस्थान कि बात हे, यह मान्यता अगर नही बदलेगी तब तक उपर के गुणस्थान मे जा केसे सकेंगे?

दुसरे को बचाने मे में तो सिर्फ़ निमित्त मात्र हु यह थीक हे लेकिन जरुरत हे कि हम खुद को निमित्त जानकर निमित्त रुप कर्ता मान ना ले. यह भी गलत मान्यता हे. दुसरी एक बात कि हम को यह बाते खुद पर घटानी हे. यह बात कि अहिंसा के भाव भी त्याज्य हे वोह दुसरो के लिये नही हे, हमे इस पर चिंतन कर के इन भावो को भासित करने हे.

यहा स्वच्छंद भी नही होना हे, आलु के जिव को में नही मारता तो उनको खाने मे कोइ दोष नही हे, यह भी बराबर नही. आलु खाने से जो जिव कि हत्या हुई उससे तुम्हे दोष नही हे लेकिन इस आलु को भक्षण करने का जो तुम्हारा अत्याधिक राग हे, आसक्ति हे और रौद्रध्यान चल रहा हे कि ये खाने से मजा आता हे वोह तुम्हारे परिणाम हे और तुम्हारे आत्मा का परिणमन हे, वोह तुम्हारा दोष हे.

बंध निज परिणाम से हे, पर से नही. राग-द्वेश रुप परिणाम पर का आश्रय लेके होते हे, इस लिये पर के त्याग ना बोध दिया जाता हे. पर के त्यागरुप क्रिया से परिणाम सुधर शकते हे, गेरेंटी नही हे. परिणाम सुधरे तो गेरेंटी से क्रिया सुधरती हे.

किसी को होस्पिटल ले जाने का काम सम्यग द्रष्टी श्रावक करे और मुनिराज ना करे, इस प्रकार प्रव्रुत्ति मे भेद होता हे लेकिन दोनो की मान्यता मे रंजमात्र का भी फ़रक नही हे कि यह उपादेय रुप कार्य नही हे.
 

"Even This Moment Will Change."
"I am not the body. The body is not mine."
"Shivmastu Sarva Jagatah" - May the entire Universe attain Bliss.


Friday, January 15, 2010

जैन मिथ्याद्रष्टियों का विवेचन - केवल निश्चयाभास के अवलंबी जिव की प्रवृति

Class Date: 11/9/2009
Chapter: 7
Page#: 206-207
Paragraph #: 4
Recorded version:
Summary:


Que: ४ अधिकार और ७ में अधिकार के मिथ्याद्रष्टि में अंतर क्या है?
Ans: अधिकार ४ - अगृहीत मिथ्यात्व के बारे में है , अनादी काल से जो चला आ रहा है,
अधिकार ७ - जो शाश्त्र सुनकर, पढ़कर, बाते सुन कर, जो मिथ्यात्व ग्रहण किया है. इसके बारे में इस अधिकार में पढ़ा है

पांच प्रकार के मिथ्यात्व है : विपरीत, एकांत, शंशय, अज्ञान, विनय

व्यवहाराभास / निश्च्याभास - एकांत मिथ्यात्व है (एक नय का अवलंबन लेता है )




  • अगर कोई सिर्फ शुद्धात्माको जानने से ज्ञानी हो जाता है - अन्य कुछ भी नहीं करना चाहिए (करना जरुरी नहीं समजता ). ऐसा जानकर एकांत में बैठकर ध्यानमुद्रा धारण कर के सोचता है की - मै सर्व कर्मोपाधिरहित सिद्ध सामान आत्मा हु,इत्यादि विचार से संतुष्ट होता है. परन्तु यह विशेषण किस प्रकार संभव है - ऐसा विचार नहीं करता यह ज्ञानी नहीं है.



  • आत्मा कैसे सिद्ध सामान है, कोन सी अपेक्षा से यह बात है वो नहीं समजता. इस में वो गलत जगह पर यह बात लगते है.


  • मेरे में चैतन्य है और सिद्ध भगवन में भी चैतन्य है, सिद्ध भगवान का द्रव्य नित्य है - मेरा द्रव्य भी नित्य है इसलिए समानता है, यह सोचकर चैतन्य स्वाभाव संन्मुख होना है ..पर यह सोचना की में अभी सिद्ध हु यह गलत बात है.


  • द्रव्य की शुद्धता को देखकर पर्याय में शुद्धता प्रगट करनी है. पर्याय की अशुद्धता को स्वीकार करना है और उसको शुद्ध करने का लक्ष्य रखना है. हमें खुद वर्त्तमान पर्याय अशुद्ध दिखती है.


  • अगर कोई अचल, अनुपम, अखंड आदि विशेषणों से विचार करता है, (i.e में वर्त्तमान में अचल हु, में अनुपम हु, अखंड हु,)पर यह हमारे पे कैसे लगते है यह जानना जरुरी है. पर यह विशेषणों तो अन्य द्रव्यों में भी संभवित है. खुद की चीज क्या है और अन्य कारन से वो चीज मिली है यह जानना भी जरुरी है, किस ओएक्षा से संभव है यह बात जानना जरुरी है. (i.e. अरहंत भगवन के अनेक विशेषण है पर सब गुण की विशेषता अगल - अलग है. जैसे कुछ देवकृत अतिशय होते है, अनंत चतुष्टय - कर्मो के क्षय से,परमोदारिक शरीर यह सब उनके गुण है पर यह सब में अन्तर है. यह सब को एक समान जानना गलत है.)


  • अलग अलग अवस्था (सोते, बैठके, आदि )में ऐसे विचार करके अपने को ज्ञानी मानना गलत है.


  • ज्ञानी को आश्रव - बंध नहीं है. ऐसा आगम में कहा है. (ज्ञानी के अनंतानुबन्धी कषाय नहीं है, इसलिए मिथ्यात्व का उदय नहीं है, मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रवृती का बंध नहीं है. इसलिए ज्यादा बंध नहीं होते. बाकि की कषाय से अनंतानुबन्धी जितना बंध नहीं होता इस अपेक्षा से कहा है की ज्ञानी को बंध नहीं है, दूसरी अपेक्षा आत्मा को बंध नहीं है,द्रव्य द्रष्टि से आत्मा को बंध नहीं है, चैतन्य तत्त्व को न तो बंध है न तो मुक्ति है, क्यूंकि वो एक जैसा ही रहेता है.) पर यह मानता है की में ज्ञानी हु और मुझे बंध नहीं है, इसलिए विषय - कषायरूप होकर भी बंध होने का भय नहीं है,इसलिए स्वछंद (शाश्त्र के अनुसार नहीं मानना, हित - अहित का विचार नहीं करना, अपनेको जो कार्य करना है वो करते है और धर्मं का आश्रय लेते उसको पोष लेना, यह कहेता है की धर्मं में ऐसा कहा है) हो कर रागादिक रुप प्रवर्तता है.


  • स्व - पर को जानने का चिन्ह वैराग्य भाव है. वैराग्य भाव पैदा हुआ हो तो स्व - पर को बराबर जानता है. पर को पर जानकर छोड़ देता है तो वैराग्य भाव पैदा हुआ है ऐसा मानना. सम्यक तरीके से जानता है तो राग द्वेष नहीं होते, राग - द्वेष नहीं होते तो उदासीनता होती है, उदासीनता है तो वैराग्यभाव होता है.


  • समयसार में कहा है की - सम्यग्द्रष्टि को निश्चय (निश्चित रूप ) से ज्ञान - वैराग्य शक्ति होती है, अज्ञानी को नहीं होती.


  • जब कोई खुद को सम्यगद्रष्टि मान ले, खुद को बंध नहीं होता ऐसा भी मान ले, ऐसे रागी - वैराग्यशक्ति रहित आचरण करते है, पांच समिति की सावधानी का अवलंबन लेते है (अगर मुनि भी बन जाये ), पर यह सब ज्ञान शक्ति के बिना सब पापी है. यह दोनों (निश्च्याभासी, व्यवहाराभासी) आत्मा - अनात्मा के ज्ञानरहित पने से सम्यक्त्व रहित है.


  • अगर पर को पर जान लिया है तो उसमे राग नहीं होता है, (i.e.पडोशी के बच्चे पर राग नहीं होता क्यूंकि वो अपने से पर है ) इसलिए अगर हमने पर द्रव्य को पर जान लिया है तो उसमे राग नहीं होना चाहिए...

Wednesday, January 13, 2010

MMP Class Notes - January 12th, 2010

Class Date:01/12/10
Chapter:7
Page#:225
Paragraph #: 1st para
Recorded version:
Summary:

इस से पहेले हमने देखा कि हमे प्रतिकुलता मे भेद विग्य़ान करना हे, कर्ताभाव छोडना हे एसा याद आता हे लेकिन फ़िर से अनुकुलता आते हि हम भुल जाते हे कि हम रोग ग्रस्त हे, इस तरह भेद विग्यान को सही मे तो हम ग्रहण ही नही करते.

व्रत, नियम, आदि लेना तो हे लेकिन उससे पहेले य उसके साथ भेद विग्यान करना हे और इस भेद विग्यान रुप भाव को भासित करते हुए उसे चारित्र मे लाना हे, यह काम बिना कोइ पर कि सहायता से हो शकता हे.

ग्यान भी रटने रुप आया हे और भाव भासन रुप नही आया, यहा ग्यान को गौण करने कि बात नही हे. "जीव जुदा - पुदगल जुदा" यह एक वचन को जानकर सिर्फ़ उससे तुम्हे भाव भासित हो जाये तो वोह थीक हे या उसके विस्तार को जानकर तुम भाव भासित करो, दोनो मे प्रयोजन तो एक हि हे कि भाव भासित करना हे. हमारी उत्साह कि कमी को मुख्यता से दूर करनी हे.

शिवभुति मुनि शब्दो का ग्यान नही था लेकिन उन्होने शब्दो से ज्यादा ध्यान शरिर-आत्मा के भेद पर दिया तो केवली हुये. यहा पढाइ के पिछे सिर्फ़ प्रोफ़ेसर या टीचर की तरह "educational language or history related research" का नही हे. हम धार्मिक प्रयोजन से पढते हे, मोक्ष और धर्म कि रुची भी हे, फ़िर भी हित-अहित का विवेक द्रढ हो नहि पाता, स्व-पर के भेद विग्यान पर द्रष्टि नही जाती, जो करने का प्रयोजन था वोह ही नही हो पाता, यह केसी विचित्रता हे, और कितने दुख कि बात हे. यह एक गंभीर समस्या हे और इस पर विचार करने कि जरुरत हे कि क्यो एसी भुल रह जाती हे.

अब जीव-अजीव तत्व का अन्यथारुप :

हम जीव के अलग-अलग भेद जानते हे, पुदगल के भेद जानते हे. यहा हम यह ग्यान शास्त्र के माध्यम से हि जानते हे और याद भी रखते हे लेकिन यह भेद जानकर भेद विग्यान किया कि नहि? जो जिव के भेद जाने, उस भेद्रुप मे खुद जिव हु, और पुदगल रुप में नही हु एसा खुद पर घटाया ही नहि.

द्रव्यानुयोग मे जो अध्यात्म शास्त्र हे वोह निश्चय - व्यवहार शैली से आत्मा कि रुचि कराने के प्रयोजन से आत्मा कि बात मुख्यता करते हे. और आगम शास्त्र वस्तु व्यवस्था का निरुपण करने के साथ जिव कि बात मुख्यता करते हे. यहा जिव यानी समस्त जिव, समग्र जिव जाती, जिव यानी पर्याय रुप भावरुप जिव, जब कि आत्मा यानी में, खुद की बात हे, आत्मा यानी त्रिकाली ध्रुव शुध्ध आत्मा.

पहली समस्या यह हे कि अध्यात्म शास्त्र पढते हि नहि, निश्चय कि बात हे इसलिये नही पढना, या श्रावक अवश्था मे व्यवहार की मुख्यता हे तो निश्चय कि जरुरत ही नही एसा मानते हे. दुसरी समस्या यह हे कि पढ तो लिया और अच्छी तरह से द्रढ श्रध्धान भी कर दीया के त्रस - स्थावर जिव क्या होता हे लेकिन में त्रस - स्थावर रुप हु कि नही या में इन पर्याय से उपर उठ्कर भी कुछ हु एसा तो सोचा ही नहि.

राग-द्वेश रुप परिणमन भी मेरा और ग्यान रुप परिणमन भी मेरा एसी जो मिश्रित मान्यता थी उस पर यह ग्यान लगाना था और मान्यता बदल जाये एसा पुरुशार्थ करना था. एक कार्य होने मे मेरा हिस्सा कितना और दुसरे का, पुदगल का हिस्सा कितना वोह सोचना हे, पर का अंश खुद मे मिलाकर हम मे कर्ताभाव कि बुध्धी हंमेशा चलती रहती हे.

हमने चोथे प्रकरण मे देखा था कि अग्रहित मि. द्रष्टी को कोइ निर्धार बिना सिर्फ़ पर्याय बुध्धी से जानपने मे, शरीर मे, राग-द्वेश मे सब मे अहंबुध्धी होती हे. यहा ग्रहित मि. द्रष्टी भी आत्माश्रित ग्यान मे और शरिराश्रित क्रिया मे अपन्त्व ( मम्त्व , कर्तुत्व , भोक्तुत्व ) कि बुध्धी रखता हे. अग्रहित मिथ्यात्वि शुभ-अशुभ दोनो को मेरे रुप जानता था, यहा ग्रहित मिथ्यत्वि सिर्फ़ शुभ को मेरी क्रिया एसा जानता हे और अशुभ को तो बुरि जानकर छोडना चाहता हे.

मुख्य बात यह हे कि भोजन ले या ना ले, आसक्ति से भोजन करे या उपवास करे यह शरीर की क्रिया हे, भोजन का एक दाना भी आत्मा मे नही जाता. शास्त्र पढकर भी भुल रह जाती हे.

Tuesday, January 5, 2010

MMP Class Notes - देव भक्ति का अन्यथारुप - धर्म बुध्धि से धर्मधारक व्यवहाराभासी मे सम्यगदर्शन का अन्यथारुप

Class Date: 12/28/09, 12/29/09, 12/30/09, 01/04/10
Chapter:7
Page#:229-230
Paragraph #: मेईन टोपीक: धर्म बुध्धि से धर्मधारक व्यवहाराभासी मे सम्यगदर्शन का अन्यथारुप, सब टोपीक: देव भक्ति का अन्यथारुप
Recorded version:
Summary:

सम्यग दर्शन की एक परिभाषा यह हे कि : देव, गुरु, शास्त्र का सच्चा श्रध्धान = सम्यकत्व.
यहा जीव अन्य कुदेव आदि को रंजमात्र भी नही सेवता लेकिन सुदेव आदी कि परिक्षा नही करता के सुदेव के गुण क्या हे और केदेव आदी के गुण-अवगुण क्या हे और अगर परीक्षा करता हे तो भी सिर्फ़ बाह्य लक्षण से करता हे, तत्वग्यानपूर्वक नही करता.

देव भक्ति संबंधी भूलें:

प्रथम भुल:

देव के बारे मे अनेक विशेषण, अनेक गुण आदि हम जानते हे लेकिन उन गुणो में जिवरुप गुण य पुदगलरुप गुणो को भिन्न भिन्न नही देखते हे. देव केवलग्यान धारी हे और सफ़ेद खुन धारी हे, इन दोनो गुणो को एक ही केटेगरी मे रख देना यानी कि हमने देव को यथार्थ रुप से जाना ही नही.
 जो शरीर आश्रित, अन्य पुदगल आश्रित और नगर या कुटुंब आश्रित गुण होते हे उनका निषेध नही हे या उनका अपमान भी नही करना हे, वोह पुज्य हे लेकिन उनका अतिरेक भी नही करना हे. अनंत चतुष्टय आदि आत्मिक गुण / अंतरंग के गुण हे उसकि महिमा को यथार्थ रुप से जानना हे.

यहा दुसरी बात यह हे कि उन जिव रुप गुण या पुदगल रुप गुण के बारे मे कोइ विचार नही किया और सिर्फ़ आग्या से उन्हे जान लिया. उन गुणो के कारन देव का महंतपना क्यों हे वोह भी नही सोचा, सिर्फ़ आग्या से देव को बडा मान लिया.

तिसरि बात: इन गुणो को जानने कि कोशिश करी तब भी बराबर/यथार्थ नही समजा. यह सोचा हि नकी कि जो आत्मिक गुण हे देव के वोह गुण देव में होने चाहिए कि नही, अगर ना हो तो उससे क्या बाधा आ शकती हे या जो पतित्पावन, दिनदयाल, मोक्षदाता आदि विशेषण हे उसका शाब्दिक अर्थ मान लिया, एसा होने पर देव मे वितरागता रहती नही एसा सोचा ही नहि और उन विशेषणो को उपचार से समजना था वोह नही किया, इस तरग देव क स्वरुप सही तरिके समजा ही नही.

दुसरी भुल:

अरिहंत आदि कि कथा मे उनके नाम, पुजा आदि से स्वर्ग, मोक्ष मिल जाता हे एसी बाते आती हे और मोक्ष दाता आदी विशेषणो के कारन जिव देव को कर्ता मान लेता हे. यहा तो कार्य होने में प्रभु के नाम स्मरण आदी के और जीव के परिणाम शुभरुप होने मे जो निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता हे उसमे अरिहंत के नाम आदी निमित्त की उपचार से महत्ता दिखाते हे. यहा प्रयोजन तो सिर्फ़ एक हि हे कि तिव्र कषाय वाला जिव मंद कषाय कि तरफ़ बढे और उसे धर्म के रास्ते पर ला सके. यहा कोइ शोर्टकट की तो बात हि नही, पुरे जिवन पाप करते रहो और अंत मे प्रभु के नाम स्मरण से पा धुल जायेंगे एसि व्यवस्था हे ही नही.

भक्ति मे कर्तुत्व पने की भाषा उपयोग मे लि जाती हे. लेकिन मान्यता मे तो यथार्थ समज होनी हि चाहिए. महमान को "आप का ही घर हे" एसा कहते हे लेकिन मानते तो अलग हे. अगर भगवान को कर्ता ना माने और सब बोज कर्म पर डाल दे तो वोह भी थीक नही.

तिसरी भुल:

अरिहंत कि भक्ति, पुजा आदि धार्मिक क्रिया करने से अनिष्ट का नाश / इष्ट क मिलना होता हे. पहले तो धर्म आत्मा के लिये करना हे , सांसरिक प्रयोजन के लिये नही. सांसरिक प्रयोजनार्थ धर्म करने वाला धर्म से लौकिक वस्तु मांगता हे और यहा तुम धर्म से पुण्य मांगते हो और फ़िर उस से काम हो जायेगा एसा मानते हो. पहेलेवाले को हित-अहित कि बुध्धि हि नहि हे और तुम्हे हित-अहित कि भावना हे लेकिन वोह सम्पुर्ण तरह से यथार्थ नहि हुइ हे अभी.

धार्मिक क्रिया के समय जिव के जो परिणाम शुभ और शुध्ध कि तरफ़ बढते हे उसके कारण संक्रमण आदी होते हे और उसमे क्रिया सिर्फ़ निमित्त रुप मात्र हे यह समजना हे. फ़ल तो परिणाम कि शुध्धता से हे, अगर लौकिक प्रयोजन रुप परिणाम हे तो फ़िर तो संक्रमण भी नही होगा.

चौथी भुल:
भक्ति हि मोक्ष का कारण हे. भक्ति मे राग हे और राग तो बन्ध का कारण हे तो फ़िर भक्ति मोक्ष का मुख्य कारण केसे हो शकती हे? भक्ति मे शुभ भाव हे और मोक्ष तो शुध्ध भाव से हे , शुभ से नही. यह समज पक्की होनी चाहिये.

इसका यह मत्लब नही के भक्ति ना करे. भक्ति करने से अशुभ का राग कम होता हे और कषाय मंद होती हे, इस तरह भक्ति परोक्ष कारण हे इस लिये सर्वथा निषेध नही हे लेकिन उसि से ही संतुष्ट नही हो जाना हे. अन्य बाह्य साधन कि तरह उसका आश्रय लेना हे और अशुभ से शुभ मे आना हे और फ़िर जब शुभ से शुद्ध के तरफ़ जाने लगे तब उसे छोडना भी हे. लक्ष्य तो शुध्धोपयोग का ही हे.

ग्यानी या अग्यानी किसि का भी अनुराग बाह्य मे ज्यादा या कम दिख शकता हे लेकिन ग्यानी का श्रध्धान ठिक हे और वोह भक्ति को भी शुभ बंध का कारण जानता हे. उसका अनुराग तीव्र नही हे लेकिन यथार्थ समज के साथ हे.

अन्य बात: देव पुजा:
किसकि करेंगे: ग्यान और वैराग्य पुज्य हे...
कौन करेगा: जिस को ग्यान-वैराग्य मे सच्चा श्रध्धान हे एसा श्रध्धावान
कैसे करेंगे: गुण अनुराग ही पुजा हे
फ़ल क्यां मिलेगा: सच्चा निर्मल सुख

अन्य बात: भाव दिपिका से:
हमने पहले देखा था कि दिर्फ़ एक देव को महत्व देन,  और अन्य तिर्थंकर आदी के प्रति उत्साह न होना यह भी भुल हे और देव का सच्चा स्वरुप नही समजा. उसी तरह अरिहंत और सामान्य केवली मे बाह्य भेद होने पर भी अंतरंग सुख मे कोइ भेद नही , यह समजने की बात हे.

अन्य बात:
अगर अरिहंत में आत्म शरीर आदि अलग-अलग जाने तो खुद को भी आत्मा रुप जान शकेंगे. स्व-पर भेद विग्यान से अरिहंत को जान, खुद पर घटाने से, देव का सच्चा सवरुप प्रतिति मे आने से हमारि मिथ्या द्रष्टि दुर होगी. इस तरह देव भक्ति का सच्चा स्वरुप सम्यग द्रष्टि का कार्ण हे.